• सज़ायाफ्ता लोगों के कानूनी अधिकारों की बात

    सच्चाई की यह ताकत होती है कि वह अचानक नमूदार हो जाती है, जब आप उसके बारे में कत्तई सचेत न हों

    Share:

    facebook
    twitter
    google plus

    - सुभाष गाताडे

    सज़ायाफ्ता कैदियों के अधिकारों के प्रति हुक्मरानों का उमड़ता सरोकार एक तरह से न्याय एव हक के लिए उठ रही हर छोटी बड़ी आवाज़ को कुचल देने की एक नापाक कोशिश है, जिसके माध्यम से वह पीड़ितों को खामोश करना चाहते हैं और न्याय के लिए उन्होंने लड़ी लंबी लड़ाई को गायब कर देना चाहते हैं। कोई भी सभ्य समाज निरपराधों के हत्यारे, मासूमों के बलात्कारियों के प्रति सम्मान प्रकट करने को गलत मानता है।

    सच्चाई की यह ताकत होती है कि वह अचानक नमूदार हो जाती है, जब आप उसके बारे में कत्तई सचेत न हों?
    भारत के प्रधानमंत्री मोदी और उनके सबसे करीब कहे जाने वाले देश के गृह मंत्री अमित शाह हाल के दिनों में इस बात को महसूस कर रहे होंगे, जब से बिल्किस बानो की रिहाई को लेकर केन्द्र सरकार की साफ संलिप्तता के प्रमाण एक के बाद एक बाहर आ रहे हैं, जिसके बारे में अभी तक आश्चर्यजनक मौन बरता गया था। याद रहे कि दो माह का वक़्त बीत गया था जब बिल्किस बानो के अपराधियों को 'अच्छे आचरण' के आधार पर रिहा किया गया था, जब 15 अगस्त की लाल किले पर प्रधानमंत्री मोदी की तकरीर के चंद घंटों के बाद वह सभी गोधरा जेल के बाहर आए थे, उनका नागरिक अभिनंदन हुआ था। यह एक ऐसा प्रसंग था जिसे लेकर देश के अंदर ही नहीं बल्कि देश के बाहर भी इन्साफपसंद लोगों, समूहों ने आक्रोश प्रकट किया था।

    याद रहे बिल्किस बानो एवं उसकी मां तथा अन्य महिला रिश्तेदार सामूहिक बलात्कार का शिकार हुई थीं और 14 लोग मारे दिए गए थे जिनमें बिल्किस की तीन साल की बेटी भी शामिल थी, जिसे पत्थर पर पटक कर मार दिया गया था- जिसमें अपराधी अपनी सजा पूरी करने के पहले ही बाहर आ गए थे और अब जबकि मामले को लोग भूलने लगे थे, तब अचानक आला अदालत की दखलंदाजी ने उस सच्चाई को पूरी तरह बेपर्द किया था कि मंचों से नारी शक्ति की बातों को दोहराने से और हक़ीकत में स्त्रीविरोधी अत्याचारियों की हिमायत करने की यह नीति लंबे समय तक ढंकी नहीं रह सकती।

    तय है कि अग्रणी विदुषियों, राजनीतिक कार्यकर्ताओं, पत्रकारों ने मिल कर सर्वोच्च न्यायालय के पास अपनी याचिकाएं दाखिल नहीं की होती तब यह सच्चाई कभी जनता के सामने नहीं आती। इस बात को देश के सामने लाने के लिए मुल्क का हर इन्साफ पसंद व्यक्ति अस्सी साल की उम्र की प्रोफेसर रूपरेखा वर्मा, जो लखनऊ विश्वविद्यालय की कुलपति रह चुकी हैं ; सीपीएम की अग्रणी नेता कामरेड सुभाषिनी अली और पत्रकार रेवती लाल का तथा एक अलग याचिका को लेकर सर्वोच्च न्यायालय के पास पहुंचीं तृणमूल कांग्रेस की सांसद महुआ मोइत्रा का शुक्रगुजार होगा कि उन्होंने इन अपराधियों की रिहाई को लेकर जनता के उद्वेग एवं आक्रोश को अदालत तक पहुंचाया, जिसने फिर मामले को हाथ में लिया।

    आला अदालत के फरमान पर गुजरात हुकूमत द्वारा उसके सामने जिन दस्तावेजों को पेश किया गया है, उन्हें देखें तो पता चलता है कि सीबीआई के अधिकारी ने साफ कहा था कि चूंकि अपराध 'बेहद घिनौना, गंभीर और भयानक' है, लिहाजा इन अपराधियों को न पहले रिहा किया जा सकता है और न ही किसी किस्म की छूट दी जा सकती है'।

    गुजरात सरकार द्वारा जिन दस्तावेज के पुलिंदे को आला अदालत के सामने पेश किया गया है उसके बारे में न्यायालय की टिप्पणी बहुत कुछ कहती है, माननीय न्यायालय ने कहा है कि यह दस्तावेज 'काफी मोटे' हैं, इसमें 'तमाम अदालती फैसलों को भी उद्धृ्रत किया गया है' मगर इनमें से मामले से जुड़े 'तथ्य न के बराबर है।' कहने का तात्पर्य कि इन पुलिंदों में बहुत कुछ शाब्दिक कसरत की गई है और मनमाने अंदाज़ में की गई इस रिहाई को औचित्य प्रदान करने की कोशिश की गई है।

    अब यह भी पता चल रहा है कि इन अपराधियों पर गृह मंत्रालय की नज़र ए इनायत अर्थात कृपादृष्टि इस कदर थी कि जेल की सलाखों में इन्होंने बिताए 14 सालों में से चार साल-चार साल इन सभी ने सलाखों के बाहर बिताए. इतना ही नहीं, उनके 'अच्छे आचरण' की दुहाई देने वाले गृह मंत्रालय द्वारा इस तथ्य पर भी गौर करना जरूरी नहीं समझा गया था कि इतने लंबे पैरोल के दौरान इनमें से दो अपराधियों पर महिलाओं के साथ छेड़छाड़ करने के मुकदमे भी दर्ज हुए थे।

    ताज़ा समाचार यह है कि आला अदालत की द्विसदस्यीय पीठ ने - न्यायमूर्ति अजय रोहतगी और न्यायमूर्ति सीटी रवि कुमार - जो इस मामले को देख रहे हैं उन्होंने तय किया है कि इस मामले की अगली सुनवाई 29 नवंबर को होगी, जिस दौरान दोनों पार्टियां अपनी प्रतिक्रियाएं पेश करेंगी। फिलवक़्त यह बिल्कुल साफ नहीं है कि इस कानूनी दखलंदाजी का नतीजा क्या निकलेगा?

    क्या अपराधियों की सज़ा पूरी होने के पहले की गई इस रिहाई को लेकर अदालत - कुछ बेहद जरूरी तथ्यों की अनदेखी करते हुए - कुछ विचित्र सा फैसला सुनाएगी, जिसका नतीजा होगा कि सभी पीड़ित फिर एक बार निराशा की एक गर्त में ढकेल दिए जाएंगे। विडम्बना ही है कि हाल के कुछ वर्षों में वर्चस्वशाली ताकतों, सरकारों द्वारा अदालत के सामने बंद लिफाफे में सबूत देने का सिलसिला बढ़ चला है।

    या मुकदमे की यह कार्रवाई एक किस्म की नज़ीर बनेगी ताकि गृहमंत्रालय द्वारा किए गए ऐसे मनमाने हस्तक्षेपों पर हमेशा के लिए अंकुश लग जाए। और अदालत समय से पहले की गई रिहाई के इस आदेश को खारिज कर देगी।

    तय बात है कि ऐसा कोई भी निर्णय कार्यपालिका पर भी अंकुश लगाएगा जो इन दिनों ऐसे कदम उठाती दिखती है जहां वह अचानक 'सज़ायाफ्ता लोगों' के अधिकारों को लेकर अचानक चिंतित दिखती है और वह इस बात को भी भूल जाती है कि इन अत्याचारियों के जुल्मों का कभी शिकार रहे लोगों, समूहों पर ; जिसके लिए लंबी लड़ाई लड़ चुके लोगों पर, उनकी सुरक्षा एवं उनकी भावनात्मक स्थिति पर कितना विपरीत असर पड़ सकता है।

    फिलवक़्त इन लाइनों को जब लिखा जा रहा है तब बलात्कार एवं हत्या के कई मामलों के लिए सज़ा भुगत रहे डेरा सच्चा सौदा के मुखिया गुरूमत बाबा राम रहीम को पांचवी दफा मिली पैरोल का मसला और उसके द्वारा शुरू किए गए आनलाइन सत्संग का मामला सुर्खियों में है, जहां भाजपा के क्षेत्रीय और प्रांतीय नेता न केवल हाजिरी लगाते दिख रहे हैं बल्कि उनका आशीर्वाद ग्रहण करते दिख रहे हैं।

    इसे महज इत्तेफाक नहीं कहा जा सकता कि बाबा को पैरोल पर चालीस दिन की मिली यह रिहाई का यही वक़्त है जबकि हरियाणा में पंचायत के चुनाव हो रहे हैं और आदमपुर की सीट पर उपचुनाव भी हो रहा है, यह ऐसे इलाके हैं, जहां डेरा सच्चा सौदा के मुखिया का आज भी प्रभाव बताया जाता है और कयास लगाए जा रहे हैं कि पैरोल पर मिली इस रिहाई से भाजपा को ही फायदा होगा।

    वैसे जब मनोहरलाल खट्टर को- जो हरियाणा के मुख्यमंत्री हैं- को इस विवादास्पद गुरू की पैरोल पर पांचवी बार हुई रिहाई को लेकर पत्रकारों ने पूछा तो उन्होंने दो बातें कहीं - एक कि 'सब कुछ नियमानुसार हुआ है' और उनकी सरकार 'सज़ायाफ्ता लोगों के वैध अधिकारों' के प्रति भी सरोकार रखती है।

    याद रहे बिल्किस बानो के अपराधियों को रिहा करने को लेकर इसी किस्म की बातें केंद्र में भाजपा के मंत्री प्रह्लाद जोशी ने कही थी कि 'सब कुछ नियमानुसार हुआ है।'
    यह समूचा घटनाक्रम इसी बात का सूचक है कि विगत कुछ सालों में कार्यपालिका के अंदर किस हद तक मनमानी बढ़ गई है कि अपने फौरी फायदों के लिए उसे पीड़ितों के कल्याण की कोई चिंता नहीं दिखती।

    वैसे सज़ायाफ्ता कैदियों के अधिकारों के प्रति हुक्मरानों का उमड़ता सरोकार एक तरह से न्याय एव हक के लिए उठ रही हर छोटी बड़ी आवाज़ को कुचल देने की एक नापाक कोशिश है, जिसके माध्यम से वह पीड़ितों को खामोश करना चाहते हैं और न्याय के लिए उन्होंने लड़ी लंबी लड़ाई को गायब कर देना चाहते हैं।

    कोई भी सभ्य समाज निरपराधों के हत्यारे, मासूमों के बलात्कारियों के प्रति सम्मान प्रकट करने को गलत मानता है, लेकिन जिस 'न्यू इंडिया' में हम विगत आठ-साढ़े आठ सालों से पहुंचे है, वहां शायद मानदंड बदल गए हैं।

    शायद इन्हीं बदलते नैतिक मानदंडों का आलम है कि बमुश्किल आठ साल की बक्करवाल समाज की बेटी आसिफा पर हुए सामूहिक दुष्कर्म और बाद में उसकी की गई हत्या के बाद जब अभियुक्तों को गिरफ्तार किया गया तब उनकी रिहाई की मांग करते हुए जुलूस निकाले गए, जिनमें बीजेपी के कई स्थानीय लेकिन बड़े नेता भी शामिल हुए थे या कुलदीप सेंगर जैसे भाजपा नेता पर इसी किस्म के आरोप लगे तो सरकार के कितने स्तर पर उसे बचाने की कोशिश हुई, यहां तक कि उसके समर्थन में जुलूस भी निकाले गए।

    Share:

    facebook
    twitter
    google plus

बड़ी ख़बरें

अपनी राय दें