- ललित सुरजन
(नोट - पाठकों, आदरणीय ललितजी की संस्मरणात्मक लेखमाला देशबन्धु - चौथा खंभा बनने से इन्कार की 33 किश्तें आपने अब तक पढ़ीं। पिछले सप्ताह ही इसकी अंतिम किश्त प्रकाशित हुई थी। इसके बाद राष्ट्रीय- अंतरराष्ट्रीय स्तर के विभिन्न राजनेताओं के साथ उनके संस्मरणों पर आधारित लेखमाला - राजनीति के गलियारों की कुछ झलकें, शीर्षक से लिखने की उनकी योजना थी। लेकिन उसकी एक ही किश्त वे लिख पाए, जो आपके लिए यहां प्रस्तुत है- संपादक)
गुजरालजी जैसे अध्ययनशील राजनेता बिरले ही हुए हैं। उनकी सोच में दूरगामी व सर्वव्यापी लाभ की संभावना निहित होती है, जिसे समझ पाना तात्कालिक लाभ का गुणा-भाग करने वाले राजनीतिज्ञों के लिए कठिन होता है। गुजरालजी ने अपनी आत्मकथा 'मैटर ऑफ डिस्क्रीशन' में बेबाकी के साथ अपने राजनीतिक जीवन के अनुभवों को लिपिबद्ध किया है।
जिम्मी कार्टर, मिखाइल गोर्बाचोव, ग्रो हार्लेम ब्रुटलैंड, चंद्रिका कुमारतुंग, टोनी ब्लेयर, इन सबने अलग-अलग समय में अपने देश के राष्ट्रपति या प्रधानमंत्री के रूप में सेवाएं दीं। इनके राजनीतिक विचारों में भिन्नता ढूंढी जा सकती है, किंतु इनमें एक नोट करने लायक समानता भी रही है। अमूमन इतने बड़े ओहदे पर पहुंचे व्यक्ति शिखर से उतरने के बाद सार्वजनिक जीवन से किसी हद तक विरत हो जाते हैं। लेकिन जिन नामों का ऊपर उल्लेख हुआ है, उन्होंने सामान्य चलन के विपरीत अंतरराष्ट्रीय राजनीति के मंच पर अपने लिए उपयुक्त भूमिका तलाश कर ली। इस सूची में और भी नाम हैं जिनकी जानकारी मुझे नहीं है; लेकिन मैं भारत के एक पूर्व प्रधानमंत्री का नाम इसमें जोड़ना चाहूंगा और वे हैं- इंद्रकुमार गुजराल।
'क्लब दे मैड्रिड' एक अंतरराष्ट्रीय थिंक टैंक या विचार समूह है जिसके सभी 95 सदस्य पूर्व राष्ट्रपति या पूर्व प्रधानमंत्री होते हैं। गुजरालजी इस शक्तिशाली संस्थान के सदस्य थे। इसी तरह की एक अन्य संस्था 'इंटरनेशनल क्राइसिस ग्रुप' है जिसके साथ भी उन्होंने काम किया। ये गैरसरकारी संगठन विश्व के मानचित्र पर सतर्क निगाह रखते हैं कि किस देश में कैसा माहौल है, किस कारण से है, यदि आंतरिक अशांति है तो क्यों है, और उसका दूर-पास क्या असर हो सकता है। संगठन अपनी ओर से संकट दूर करने व शांति स्थापना के लिए सुझाव भी देते हैं।
जैसा कि हम जानते हैं श्री गुजराल ने केंद्रीय मंत्रिमंडल में समय-समय पर अनेक विभागों की जिम्मेदारियां निभाईं। इनमें विदेश मंत्री का पदभार सम्हालना मेरी दृष्टि में सबसे अधिक महत्वपूर्ण था। उसके पूर्व वे अनेक वर्षों तक सोवियत संघ में भारत के राजदूत भी रह चुके थे। उक्त संगठनों ने कूटनीति में उनके विशद अनुभव का लाभ उठाने के उद्देश्य से उन्हें सदस्यता हेतु आमंत्रित किया तो यह स्वाभाविक ही था। यह किंचित आश्चर्य की बात है कि गुजरालजी की इन संस्थाओं से संबद्धता का कोई प्रचार नहीं हुआ! उसका एक कारण यह हो सकता है कि स्वयं गुजरालजी की रुचि इस ओर न रही हो।
दूसरा कारण यह भी हो सकता है कि अंतरराष्ट्रीय राजनीति जैसे गंभीर मुद्दों पर हमारे अखबारों की दिलचस्पी पिछले दो-तीन दशक में धीरे-धीरे कर कम होती गई है! मुझे यदि गुजराल साहब के संपर्क में आने का अवसर मिला तो उसका प्रमुख कारण शायद यही था कि मैं उन गिने-चुने पत्रकारों में था जो इस विषय में रुचि रखते थे। मेरी उनसे पहली औपचारिक भेंट जनवरी 1978 में मास्को में हुई थी, जब मैं भारत-सोवियत मैत्री संघ के शिष्टमंडल में सोवियत संघ की यात्रा पर गया था और वापस लौटने के पहले उन्होंने हम लोगों को रात्रिभोज पर राजदूत निवास पर आमंत्रित किया था। प्रसंगवश कह दूं कि विभिन्न प्रदेशों के प्रतिनिधियों से बने इस दल में जम्मू-कश्मीर से डॉ. फारूख अब्दुल्ला भी थे।
श्री गुजराल से शिष्टमंडल के सदस्यों का बाकायदा परिचय करवाया गया। वे बाबूजी को पहले से जानते थे। मेरे यह बताने पर कि मैं उनका पुत्र हूं, उन्होंने खुश होकर कहा- वे तो हमारे पुराने मित्र हैं। उनके साथ मेरी दुबारा मुलाकात कुछ साल बाद संसद के सेंट्रल हॉल में हुई। वे जहां बैठे थे, मैं उनके पास गया, अपना परिचय दिया और मास्को में उनसे भेंट की याद दिलाई। उस दिन उनके साथ थोड़ी देर बातचीत हुई। यहां से जो सिलसिला शुरू हुआ, वह उनके जीवनपर्यन्त चलता रहा। उनके अपार ज्ञान और अनुभव से मैंने बहुत कुछ सीखा। वे जब विदेश मंत्री थे, तब का एक प्रसंग मैं भूल नहीं सकता। मेरे मंझले दामाद अजय का पासपोर्ट गुम गया था। मैंने उनकी सहायता मांगने के लिए सुबह-सुबह फोन किया। वे तब घूमने गए थे। लौटकर आए तो खुद होकर फोन लगाया- ललितजी, क्या बात है? मैंने समस्या बताई तो मुझे आश्वस्त किया, फिर बेटी तिथि को फोन कर उससे पूरा विवरण लिया और जैसी आवश्यकता थी वैसी सहायता कर दी। इन मुलाकातों के बीच ही कभी मैंने उन्हें खत लिखकर देशबन्धु लाइब्रेरी के बारे में जानकारी दी, और अनुरोध किया कि वे अपना विशाल पुस्तक संग्रह छत्तीसगढ़ के इस सार्वजनिक पुस्तकालय को हस्तांतरित करने पर विचार करें। गुजरालजी ने पूरा संग्रह तो हमें नहीं दिया, लेकिन बड़ी तादाद में पुस्तकें अवश्य भेंट कीं।
गुजरालजी के साथ मेरी अनौपचारिक मुलाकातों की कोई गिनती नहीं है, परंतु प्रधानमंत्री के साथ की गई एक विदेश यात्रा के दौरान उनसे चार-पांच दिन तक लगातार औपचारिक भेंटें भी हुईं। संयोगवश यह यात्रा सोवियत संघ की ही थी। जुलाई 1990 में वीपी सिंह प्रधानमंत्री थे, तब उनकी सोवियत यात्रा के दौरान साथ गए पत्रकार दल का मैं भी एक सदस्य था। गुजराल साहब को तो विदेश मंत्री के नाते साथ होना ही था। इस तूफानी दौरे में मैंने अपनी ओर से रिपोर्टिंग करने में कोई कसर बाकी नहीं रखी, लेकिन यदि कोई कमी थी तो विदेश मंत्री से पूर्व परिचय का लाभ उठाकर मैं जानकारी हासिल कर लेता था। अपने इसी संपर्क के बल पर मैंने उन्हें दो बार रोटरी इंटरनेशनल डिस्ट्रिक्ट-3260 (ओडिशा, छत्तीसगढ़, महाकोशल) के वार्षिक सम्मेलन में मुख्य अतिथि के नाते आमंत्रित किया तथा दोनों बार उन्होंने मुझे निराश नहीं किया। पहली बार फरवरी 1988 में वे श्रीमती शीला गुजराल के साथ कटक सम्मेलन में आए व दूसरी बार जनवरी 1995 में संबलपुर। इस दूसरे मौके पर मुझे ही रायपुर विमानतल से उन्हें साथ लेकर संबलपुर जाना था किंतु सिर्फ पांच दिन पहले बाबूजी के निधन के कारण यह संभव नहीं था। तब संबलपुर से लौट दिल्ली वापस जाते समय गुजरालजी घर पर शोक संवेदना व्यक्त करने आए। यह उनका मेरे प्रति स्नेह ही था।
इंद्रकुमार गुजराल ने विदेश मंत्री के पद पर रहते हुए खाड़ी युद्ध के समय वहां फंसे भारतीय नागरिकों की सुरक्षा सुनिश्चित करने व उन्हें स्वदेश वापस लाने के लिए जो सफल प्रयास किए वह हमारी विदेश नीति के इतिहास का एक उज्जवल पृष्ठ है। यद्यपि उन्होंने विदेश मंत्री व प्रधानमंत्री दोनों पदों के दौरान पड़ोसी देशों के साथ शांतिपूर्ण सहअस्तित्व हेतु जो गुजराल डाक्टरीन या सिद्धांत पेश किया था, उसे रूढ़ियों व इतिहास में जकड़े राजनीतिक तंत्र की नापसंदगी के चलते व्यवहार में नहीं लाया जा सका। गुजरालजी जैसे अध्ययनशील राजनेता बिरले ही हुए हैं। उनकी सोच में दूरगामी व सर्वव्यापी लाभ की संभावना निहित होती है, जिसे समझ पाना तात्कालिक लाभ का गुणा-भाग करने वाले राजनीतिज्ञों के लिए कठिन होता है। गुजरालजी ने अपनी आत्मकथा 'मैटर ऑफ डिस्क्रीशन' में बेबाकी के साथ अपने राजनीतिक जीवन के अनुभवों को लिपिबद्ध किया है। उन्हें इंदिरा गांधी से लेकर लालूप्रसाद यादव तक जो मान-अपमान झेलना पड़ा, उसका बयान करने में भी उन्होंने संकोच नहीं किया है। अपने यहां आत्मकथा लेखन में ऐसी स्पष्टवादिता देखने नहीं मिलती।
गुजराल साहब जैसा शिष्टाचार का पक्का व्यक्ति मैंने कम से कम राजनीति में तो नहीं ही देखा। मैं जब भी उनसे मिलने जाता तो वे स्टाफ को मेरी कार पोर्च में बुलाने का आदेश देते। फिर स्वयं बाहर तक विदा करने आते। एक बार मजोदार घटना घटी। उस दिन मेरे नियमित टैक्सी ड्राइवर परविंदर सिंह की जगह एक नया टैक्सी चालक था। वह पोर्च में गाड़ी लाया और जैसे ही गुजराल साहब को देखा, इंजन बंद किए बिना फटाफट नीचे उतरा और आकर उनके पैर छू लिए। वे भी एक पल के लिए अचकचा गए, फिर उसे खुश रहो का आशीर्वाद दे दिया।
बंगले से बाहर निकले तो ड्राइवर ने मुझसे कहा- सर, मैंने गलत तो नहीं किया? इतने बड़े आदमी को देखा तो मुझसे रहा नहीं गया। मैंने उसे आश्वस्त किया कि कोई गलती नहीं की। वे देश के अकेले ऐसे प्रधानमंत्री थे, जिनके साथ मेरा इतना निकट संपर्क रहा, लेकिन मैंने उनसे उनकी विशाल लाइब्रेरी की किताबों के अलावा कुछ नहीं मांगा; न पद्म सम्मान, न विदेश यात्रा, यहां तक कि विज्ञापन भी नहीं। बस, 2008 की मेरी संभावित जापान यात्रा के समय उन्होंने राजदूत श्री मणि त्रिपाठी को 'मेरे व्यक्तिगत मित्र' की सुविधा का ख्याल रखने के लिए पत्र लिखा था, जिसके उत्तर में त्रिपाठीजी ने मुझे राजदूत निवास पर ही ठहरने का प्रबंध कर दिया था। वे चाहते थे कि हिरोशिमा-नागासाकी के अलावा मैं टोक्यो में भी उन लोगों से मिलूं जो वैश्विक घटनाक्रम के गंभीर अध्येता हैं। एक दृष्टि से वे मुझे अपने अनुभवों को विस्तार देने की सीख ही दे रहे थे। किसी कारणवश ऐन मौके पर मुझे वह यात्रा ही करना पड़ी और मैं एक नायाब अवसर का लाभ लेने से वंचित हो गया।aksharparv@gmail.com