• विनम्र श्रद्धांजलि ...बाकी बचे निशां

    19 जून 1931 को उत्तरप्रदेश के मुरादाबाद में जन्में ब्रह्मदेव शर्मा 1956 में आईएएस बने। मध्यप्रदेश काडर मिला। गणित से पीएचडी श्री शर्मा 1968 से लेकर 1970 तक बस्तर में पदस्थापित रहे और यहीं आदिवासी समाज से उनका इतना गहरा नाता जुड़ा कि वे उनके दिलों में बस गए। सन 1973-74 में वे केन्द्रीय गृह मंत्रालय में निदेशक बने और फिर संयुक्त सचिव भी।

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     सुमन केशरी, नई दिल्ली
    आखिरी वक्त तक अन्याय से लड़ते रहे बी.डी.शर्मा
    19 जून 1931 को उत्तरप्रदेश के मुरादाबाद में जन्में ब्रह्मदेव शर्मा 1956 में आईएएस बने। मध्यप्रदेश काडर मिला। गणित से पीएचडी श्री शर्मा 1968 से लेकर 1970 तक बस्तर में पदस्थापित रहे और यहीं आदिवासी समाज से उनका इतना गहरा नाता जुड़ा कि वे उनके दिलों में बस गए। सन 1973-74 में वे केन्द्रीय गृह मंत्रालय में निदेशक बने और फिर संयुक्त सचिव भी। लेकिन 1980 में सरकार के साथ बस्तर पाइन प्रोजेक्ट को लेकर नीतिगत मतभेद उभरने के बाद उन्होंने नौकरशाही से इस्तीफा दे दिया। तब श्री शर्मा मध्य प्रदेश सरकार में जनजातीय मामलों के सचिव थे। बाद में उन्हें फिर से आदिवासी विभाग का सचिव बनाया गया। डॉ ब्रह्मदेव शर्मा बस्तर कलेक्टर रहते आदिवासियों के पक्ष में खड़े रहते थे। उन्हें जनता तथा गरीब लोगों के पक्षधर प्रशासक रूप में जाना जाता था। उन्होंने नार्थ-ईस्ट के वाइस चांसलर के रूप में लोकप्रियता हासिल की थी। शेड्यूल ट्राइब कमीशन के कमिश्नर के रूप में उनकी रिपोर्ट देश में आदिवासियों के भयावह स्थिति को बतलाती थी तथा उनकी अनुशंसायें आदिवासियों को न्याय दिलाने वाले दस्तावेज़ के रूप में जाने जाते हैं। उन्होंने किसानों की लूट को गांव की गरीबी का कारण बताया था। भारत जन आंदोलन तथा किसान प्रतिष्ठा मंच का गठन कर उन्होंने किसानों तथा आदिवासियों के मुद्दों को राष्ट्रीय स्तर का बना दिया था। मुल्ताई पुलिस फायरिंग के बाद वे सरकार के नज़दीक होंने के बावजूद किसानों की ओर से लगातार लड़ते रहें। डॉ शर्मा ने किसानों की ओर से गवाही भी दी थी।  वे आजीवन सम्मानीय और आदरणीय बने रहे। प्रस्तुत है उनके जीवन से जुड़ी कुछ यादें...
    गहरे में गांधीवादी...
    गणित जगत की सैर, बेजुबान, वेब ऑफ पॉवर्टी, फोस्र्ड मैरिज इन बैलाडीला, दलित्स बिट्रेड आदि अनेक विचारणीय पुस्तकें लिखने वाले और हस्तलिखित पत्रिका भूमिकाल का संपादन करने वाले बी.डी. नहीं रहे।
    उनसे पहली मुलाकात 1979-80 के आसपास हुई थी। गोकि अजय से मेरी मुलाकात 1977 में ही हो गई थी। जाने कितनी बातें सुनीं उनके बारे में पुरुषोत्तम के मुख से हर बार एक बात जरूर रहती, और वह थी गहरे आदर और सम्मान का भाव। जब उनसे मिली तो सम्मान का भाव एकदम आ गया। वे थे 'लिखना कठिन है!Ó ही ऐसे।
    कहते अगर संविधान को सही में लागू कर दिया जाए तो भारत की समस्याएं हल हो जाएंगी, परेशानी यह है, कि संविधान पुस्तक बन कर रह गई है।
    वे ज्यादातर तो मुझे बहू ही पुकारते, कभी कभी सुमन भी।
    कुछ बातें जो कभी नहीं भूल पाऊंगी उनमें से एक यह कि मैं तो सोचता था, कि तुम आदिवासियों के बीच काम करोगी, तुमने तो नौकरी शुरु कर दी। वे स्पष्टत: दुखी थे।
    दूसरी बात अभी कुछ साल पहले की है। एक गांधीवादी के मुंह से सुनना। गजब का अनुभव था वह, एक बेबसी का अहसास भी।
    'सुमनÓ- इस बार उन्होंने बहू नहीं कहा था मुझे। एक व्यक्ति दूसरे व्यक्ति से बात कर रहा था, रिश्तों के परे मनुष्य, मनुष्य से 'अगर तुम वहां बस्तर में चली जाओ तो सोचोगी इन्होंने इतनी देर से बंदूकें क्यों उठाईंÓ। मैं हतप्रभ थी। उन्हें जानती थी इसीलिए और ज्यादा, पर वे अपनी बात पर अडिग थे।
    वे आखिरी समय तक अन्याय और हिंसा के खिलाफ लड़ते रहे। भारत में आरक्षण की जरूरत पर उन्होंने बहस करके हमारी दृष्टि साफ की थी।
    मुझे याद है वह दिन भी जब बस्तर में शराब। भू-माफिया ने उनके मुख पर कालिख पोता था। यह वही बस्तर था, जहां वे भगवान की तरह पूजते थे। उसके बाद जेएनयू में पुरुषोत्तम आदि ने उनकी सभा आयोजित की, जिसमें तिल रखने की जगह न थी।
    अभी कुछ दिन पहले की ही तो बात है, जब आपसे मिलने मैं और पुरुषोत्तम खेरापति कॉलोनी, ग्वालियर वाले घर पर पहुंचे थे।
    ब्रह्मदेव जी अपने अंतिम दिनों में स्मृतिलोप  से जूझ रहे थे। उन्हें कुछ भी याद न रहता था। पर एक बात वे अपने अंतिम पल तक न भूले।  काम, लोगों के हित के लिए, उनके हर तरह के दारिद्रय को दूर करने के लिए काम करना नहीं भूले।
    जब हम उनसे मिलने पहुंंंंंंंचे तो उन्हें कुछ याद था, कि हम भी उन्हीं की राह के पथिक हैं। देखते ही खुश हो गए 'पुरुषोत्तम तुम एक मीटिंग बुला लोÓ बहुत काम है, समग्र दृष्टि की जरूरत है। ऐसे नहीं हालात सुधरेंगे। वी हैव टू हैव अ कॉम्प्रिहेंसिव एजेंडा।
    हमारी आंखों में आंसू थे
    अजय ने बताया कि 'उन्हें शांत रखने का, खिलाने का, सुलाने का एक ही तरीका है, कि बता दो मीटिंग वाले आए हैं, आपको जल्दी जाना है।
    एक कर्मठ व्यक्ति सतत कर्मठ
    याद है न अभी कुछ महीने पहले ही तो वे मोटर साइकिल में पीछे बैठे अपहृत आईएएस को छुड़ाने नक्सलियों के पास गए थे या भेजे गए थे। अद्भुत डायलॉग था उनका आदिवासियों से भी और नक्सलियों से भी।
    वे 1956 बैच के मध्यप्रदेश काडर के आईएएस थे, एससीएसटी कमीशन के अध्यक्ष और उस जमाने में नेहू के वाइस चांसलर जब वहां हिंसा का दौर था। सुना है, कि उनसे पहले वाले वाइस चांसलर की कुर्सी के नीचे बम फटा था। तब इंदिरा जी न उन्हें वहां भेजा था।
    अभी-अभी अजय शर्मा का फोन आया, इतनी रात गए फोन मन डर गया और आशंका सच निकली।
    अंकल नहीं रहे।
    आपको प्रणाम। आप हमारे मन में तो सदा जीवित ही रहेंगे अंकल।

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