• महान संगीतकार जयदेव को नहीं मिला उचित सम्मान

    हिन्दी फिल्म जगत में कई ऐसे महान संगीतकार हुए हैं, जिनकी बनायी कर्णप्रिय समुधुर धुनों के लोग आज भी कायल हैं लेकिन किसी भी कीमत पर संगीत की श्रेष्ठता से समझौता नहीं करने की जिद के कारण वे केवल कुछ ही फिल्मों में

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    आज पुण्यतिथि

    हिन्दी फिल्म जगत में कई ऐसे महान संगीतकार हुए हैं, जिनकी बनायी कर्णप्रिय समुधुर धुनों के लोग आज भी कायल हैं लेकिन किसी भी कीमत पर संगीत की श्रेष्ठता से समझौता नहीं करने की जिद के कारण वे केवल कुछ ही फिल्मों में अपनी लाजवाब धुनें दे पाए और चटपट धुनें बनाने के लिए जानी जाने वाली फिल्म इंडस्ट्री ने उन्हें वह श्रेय नहीं दिया जिसके वे हकदार थे। ऐसे ही काबिल संगीतकारों में एक संगीतकार थे,, जयदेव। जयदेव ने बेहद गिनी चुनी फिल्मों में संगीत दिया लेकिन उन्होंने जो भी धुनें बनायीं, वे फिल्म चलने या नहीं चलने के बावजूद हिट रहीं। हम दोनों, किनारे, किनारे, मुझे जीने दो, दो बूंद पानी, प्रेम परबत, रेशमा और शेरा, लैला मजनूं, घरौंदा, गमन आदि फिल्मों में दिए उनके लाजवाब संगीत को भला कौन भूल सकता है। जयदेव का जन्म 3 अगस्त 1919 को लुधियाना में हुआ था। वह प्रारंभ में फिल्म स्टार बनना चाहते थे। 15 साल की उम्र में वह घर से भागकर मुम्बई,तब बम्बई, भी आए लेकिन नियति को कुछ और ही मंजूर था। वाडिया फिल्म कंपनी की आठ फिल्मों में बाल कलाकार के रूप में काम करने के बाद उनका मन उचाट हो गया और उन्होंने वापस लुधियाना जाकर प्रोफेसर बरकत राय से संगीत की तालीम लेनी शुर कर दी। बाद में उन्होंने मुम्बई में भी कृष्णराव जावकर और जनार्दन जावकर से संगीत की विधिवत् शिक्षा ग्रहण की। इसी दौरान पिता की बीमारी की वजह से उनका कैरियर प्रभावित हुआ। उन्हें पिता की देखभाल के लिए वापस लुधियाना जाना पडा। जब उनके पिता का निधन हुआ तो उनके कंधों पर अपनी बहन की देखभाल की जिम्मेदारी आ पडी। बहन की शादी कराने के बाद उन्होंने फिर से अपने कैरियर की तरफ ध्यान देना शुर किया और वर्ष 1943 में उन्होंने लखनऊ में विख्यात सरोद वादक उस्ताद अली अकबर खान से संगीत की तालीम लेनी शुर कर दी। उस्ताद अली अकबर खान ने नवकेतन की फिल्म ''आंधियां,, और ''हमसफर,, में जब संगीत देने का जिम्मा संभाला तब उन्होंने जयदेव को अपना सहायक बना लिया। नवकेतन की ही ''टैक्सी ड्राइवर'' फिल्म से वह संगीतकार सचिन देव वर्मन के सहायक बन गए लेकिन उन्हें स्वतंत्र रूप से संगीत देने का जिम्मा चेतन आनन्द की फिल्म ''जोरू का भाई'' में मिला। इसके बाद उन्होंने चेतन आनन्द की एक और फिल्म ''अंजलि'' में भी संगीत दिया। हालांकि ये दोनों फिल्में कामयाब नहीं रहीं लेकिन उनकी बनाई धुनों को काफी सराहना मिली। जयदेव का सितारा चमका, नवकेतन की फिल्म ''हम दोनों'' से। इस फिल्म में उनका संगीतबध्द हर गाना खूब लोकप्रिय हुआ, फिर चाहे वह ''भी न जाओ छोडकर, मैं जिन्दगी का साथ निभाता चला गया'' ''कभी खुद पे कभी हालात पे रोना आया हो या अल्लाह तेरो नाम। अल्लाह तेरो नाम'' की संगीत रचना इतनी मकबूल हुई कि लता मंगेशकर जब भी स्टेज पर जाती हैं तो इस भजन को गाना नहीं भूलतीं। कई स्कूलों में भी बच्चों से यह भजन गवाया जाता है। उनकी एक और बडी कामयाब फिल्म रही ''रेशमा और शेरा''। इस फिल्म में राजस्थानी लोकधुनों पर आधारित उनका कर्णप्रिय संगीत आज भी ताजा बयार की तरह श्रोताओं को सुकून से भर देता है। जयदेव की यादातर फिल्में ''जैसे आलाप'' किनारे,किनारे, अनकही आदि फ्लाप रहीं लेकिन उनका संगीत हमेशा चला। जयदेव के संगीत की विशेषता थी कि वह शास्त्रीय राग, रागिनियों और लोकधुनों का इस खूबसूरती से मिश्रण करते थे कि उनकी बनायी धुनें विशिष्ट बन जाती थीं। उदाहरण के लिए ''प्रेम परबत'' के गीत ''ये दिल और उनकी पनाहों के साये'' को ही लीजिए, जिसमें उन्होंने पहाडी लोकधुन का इस्तेमाल करते हुए संतूर का इस खूबसूरती से प्रयोग किया है कि लगता है कि पहाडों से नदी बलखाती हुई बढ रही हो। जयदेव नयी प्रतिभाओं को मौका देने में हमेशा आगे रहे। दिलराज कौर, भूपेन्द्र, रूना लैला, पीनाज मसानी, सुरेश वाडेकर आदि नवोदित गायकों को उन्होंने प्रोत्साहित किया और अपनी फिल्मों में गायन के अनेक मौके दिए।

     अजय कुमार विश्वकर्मा

     

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