• कश्मीरियत को बचा लें

    जम्मू-कश्मीर कभी उस तरह हाथ से निकलता नजर नहीं आया, जैसा आज आ रहा है। बाजपेयी सरकार में कश्मीरियत, जम्हूरियत, इंसानियत की बात हुई, मनमोहन सिंह सरकार ने उसे बरकरार रखा अफसोस कि आज ....

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    किसी भी देश में लोगों में सेना का भय खत्म होने पर देश का विनाश हो जाता है। विरोधियों को आपसे डरना चाहिए और आपके लोगों में भी आपका भय होना चाहिए, हमारी मित्रतापूर्ण व्यवहार रखने वाली सेना हैं लेकिन कानून-व्यवस्था बहाल करने से जुड़ा सवाल आने पर लोगों में हमारा भय होना चाहिए। ये  विचार भारत के सेना प्रमुख जनरल विपिन रावत के हैं। जब से मेजर गोगोर्ई ने पत्थरबाजों के बीच से निकलने के लिए फारुख डार नामक कश्मीरी युवक को मानव ढाल की तरह जीप पर बांधने का तथाकथित साहसिक कारनामा किया है, तब से इस विषय पर काफी विमर्श हो रहा है कि उन्होंने जो किया, वह सही था या नहीं। सेना ने उन्हें सम्मानित कर और सरकार ने उनके विवेक की बात कर अपना पक्ष स्पष्ट कर दिया है। रहा सवाल मानवाधिकारों का, तो देशप्रेम और देशहित के साथ मानवाधिकार मानो बेमेल बना दिया गया है। अंग्रेजी में जिसे कहते हैं आड वन आउट। एक साक्षात्कार में जनरल रावत ने कहा कि सेना प्रमुख के रूप में सेना का मनोबल मेरे लिए सबसे जरूरी है। वह मेरा काम है। मैं लड़ाई के मैदान से बहुत दूर हूं। मैं वहां परिस्थितियों को प्रभावित नहीं कर सकता। मैं केवल जवानों से यह कह सकता हूं कि मैं आपके साथ हूं। मैं हमेशा अपने लोगों से कहता हूं कि चीजें गलत हो सकती हैं, लेकिन अगर ऐसा हुआ और आपका इरादा दुर्भावनापूर्ण नहीं है, तो मैं वहां (हालात संभालने के लिए) हूं। ये बातें उन्होंने जम्मू-कश्मीर के संदर्भ में कहीं, जहां विगत जुलाई से हालात बेकाबू हो गए हैं। बुरहान बानी की मौत के बाद से वहां की स्थिति को संभालना सरकार के लिए कठिन होता जा रहा है। स्थानीय लोगों में, विशेषकर नौजवानों में आक्रोश बढ़ रहा है। नौबत यहां तक पहुंच गई है कि अब स्कूल-कालेज के छात्र-छात्राएं पत्थरबाजों में शामिल होने लगे हैं और उनसे निपटने के लिए सरकार को सैन्य बल ही उपाय नजर आ रहा है। जनरल रावत कहते हैं यह छद्म युद्ध है और छद्म युद्ध घृणित लड़ाई होती है। इसे घृणित तरीके से अंजाम दिया जाता है। संघर्ष के नियम तब लागू होते हैं, जब विरोधी पक्ष आपसे आमने सामने लड़ता है। यह घृणित युद्ध है, ऐसे समय में नए तरीकों का जन्म होता है। आप नए तरीकों से घृणित युद्ध लड़ते हैं। बेशक जनरल रावत की बातें, विचार सेना के अनुरूप हैं। सेना का प्रशिक्षण ही इस तरह से होता है कि हर हाल में दुश्मन का मुकाबला करना है। लेकिन यह समझना होगा कि आज सरकार बजरिए सेना जिन लोगों से आमना-सामना कर रही है, वे दुश्मन नहीं हैं। आपके अपने लोग हैं, जिन्हें आपके विश्वास और सहारे की दरकार है। उनके साथ शत्रुओं जैसा व्यवहार, घृणित लड़ाई उन्हें आपसे और दूर करेगी।

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    कश्मीर में आतंकवाद आज की नहीं बल्कि तीन दशक पुरानी समस्या है। सीमापार से पाक प्रायोजित आतंकवादियों ने घाटी में संदेह और अविश्वास का वातावरण बनाना शुरु किया और हिंसा की आग दावानल की तरह फैल गई। कारगिल, कंधार इस आतंकवाद की ही देन हैं। बावजूद इसके जम्मू-कश्मीर कभी उस तरह हाथ से निकलता नजर नहीं आया, जैसा आज आ रहा है। बाजपेयी सरकार में कश्मीरियत, जम्हूरियत, इंसानियत की बात हुई, मनमोहन सिंह सरकार ने उसे बरकरार रखा और मोदी सरकार में भी कुछ ऐसा ही वादा किया गया था। लेकिन अफसोस कि आज जम्हूरियत और इंसानियत में तो सरकार हारती दिख रही है, कश्मीरियत को भी वह संभाल नहींपा रही है सरकार जानती है कि कश्मीर की समस्या केवल सेना के दम पर नहीं सुलझाई जा सकती। वहां सभी तबके के लोगों से, असंतुष्टों, विरोधियों के साथ बातचीत की प्रक्रिया जारी रखने से ही कोई रास्ता निकलेगा। लेकिन यह काम न केवल समय मांगता है, बल्कि अभूतपूर्व धैर्य भी इसके लिए चाहिए। सरकार देख रही है कि समय उसके हाथ से निकल रहा है और धैर्य की बात को बेमानी हो गई है, इसलिए सेना का ही सहारा लिया जा रहा है। फिर चाहे इसके लिए अपने ही नौजवान दुश्मन सदृश क्यों न हो जाएं। पहले बानी मारा गया, अब उसका सहायक सबजार मारा गया। लेकिन क्या इससे कश्मीर के हालात बदल गए? सरकार को कश्मीरियत की रक्षा करनी है, तो ईमानदारी से इसका जवाब तलाशना होगा। कश्मीर मामले में एक पहलू पाकिस्तान भी है, जिससे तमाम विपरीत परिस्थितियों में भी भारत ने संवाद बनाए रखा और अंतरराष्ट्रीय मंचों से उस पर दबाव बनवाता रहा। लेकिन अब ऐसा नहींहो रहा है। जाधव मामले में बेशक भारत को अंतरराष्ट्रीय न्यायालय में सफलता मिली है, लेकिन फिर भी पाकिस्तान पर पहले जैसा दबाव नहींबन पा रहा है। चीन उसके साथ खड़ा नजर आता है और अमरीका का भरोसा नहींकि वह कब पाला बदल ले। भारत के साथ नरमी-गरमी के बावजूद पाकिस्तान की बातचीत चलती थी, अब उसमें भी कई रुकावटें हैं, जिसका खामियाजा भारत अधिक भुगत रहा है, क्योंकि कश्मीर में जनता के बीच सरकार का विश्वास खत्म हो रहा है। तीन साल में मोदी सरकार ने देश में कई किस्म के आमूलचूल परिवर्तनों की शुरुआत की है, काश कश्मीर की समस्या को सुलझाने के लिए ऐसी कोई सकारात्मक , क्रांतिकारी पहल होती।

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