प्रभाकर चौबे
कुछ वर्षों से देश के आम चुनाव ‘चुनाव’ न होकर ‘ऑफर’ बना दिए गए हैं। विधानसभा के चुनाव हों अथवा लोकसभा के, चुनावों के पूर्व मनमोहक ऑफर पेश किये जाने का रिवाज चल पड़ा है। जैसे त्योहारों के पूर्व सेल लगते हैं- एक लो, एक फ्री ले जाओ का ऑफर दिया जाता है, उसी तरह चुनाव के पूर्व राजनीतिक दल मतदाताओं को वोट दो, मुफ्त में ये-ये ले जाओ का ऑफर देने लगे हंै। दीवाली ऑफर या रक्षाबंधन में विशेष छूट की तरह चुनाव ऑफर की घोषणा होने लगती है। जैसे एक ही तरह की वस्तु बनाने वाली कई कम्पनियां होती हैं, बेचने वाले कई होते हैं, सेल लगाने वाले भी कुछ होते हैं, उसी तरह चुनावों में कई दल होते हैं और मतदाताओं को आकर्षित करने, वोट पाने कई तरह के ऑफर देते हैं। अब तो मतदाता यह देखने लगे हैं कि कौन-सा दल क्या दे रहा है- जैसे सेल लगते हैं तो लोग देखते हैं कि किस दुकान में कितनी छूट दी जा रही है। एक खरीदो एक मुफ्त ले जाओ की तरह अगर आगे किसी दुकान में यह लिखा हो कि एक खरीदो दो मुफ्त ले जाओ तो ग्राहक उस दुकान के प्रति आकर्षित होते हैं। जनता त्योहारों के पूर्व इस बात पर भी न•ार रखने लगी है कि कौन-सी पार्टी क्या-क्या देने की बात कर रही है। मान लो किसी राजनीतिक दल ने कहा कि मुफ्त में लेपटाप दिया जाएगा तो चर्चा शुरू हो जाती है- अगर कोई कहे कि यह दल लेपटाप बांटने की बात कह रहा है तो हो सकता है दूसरा उसे रोके, जरा धीरज रखिये, हड़बड़ी में कोई फैसला न लीजिए- मतलब नुकसान में पड़ सकते हैं आप। देखिए, आगे देखिए, अभी केवल एक ही पार्टी का ऑफर घोषित हुआ है- अभी तो चार-चार बड़े दल बचे हैं। वे भी मैदान में आनेवाले हैं- देखो कि वे क्या ऑफर लेकर आते हैं। दूसरे दल ने कहा कि- एक रुपया किलो चावल देंगे... तो कोई कह सकता है कि जरा धीरज रखिये। हो सकता है तीसरा दल चावल के साथ मुफ्त में दाल देने की बात कहे- घोषणा पत्र में लिखे कि एक रुपया किलो चावल और आधा किलो मुफ्त में दाल- घर के हर सदस्य को लाभ दिया जाएगा। कोई मतदाता कह सकता है कि अभी तीसरा बड़ा दल बचा है। उसका घोषणा पत्र आने दो। हो सकता है कि वह ऑफर दे कि चावल-दाल के साथ रोज ही सब्जी मुफ्त में। एक और दल कह सकता है कि वह तो एक ही सब्जी मुफ्त में देगा, हम दो सब्जी देंगे और दोनों टाईम देंगे- दोपहर के भोजन और रात्रि के भोजन के साथ। आपको कहीं जाने की जरूरत नहीं, आपके घर भोजन पहुंचाया जाएगा। पता नहीं राजनीतिक दल मतदाताओं को ग्राहक कैसे समझने लगे हैं। यह क्यों कर किया जा रहा है। मतदाता क्या ‘ऑफर’ से प्रभावित होते हैं। मतदाताओं की पोलिटिकल प्रतिबद्धता और उनकी खुद की सोच को इतना सतही क्यों बनाया जा रहा है। इस तरह ऑफर देने वाले दल राजनीतिक शिक्षा देने का काम छोडक़र केवल सत्ता सुख की खोज में लग गये हैं और इसी कारण के किसी भी तरीके से सत्ता में पहुंचने इस तरह के चोचले कर रहे हैं- यह कुछ वर्षों से बढ़ा है- बढ़ते ही जा रहा है। ऐसा ऑफर घोषणापत्र में देना लोकतंत्र को ‘सामंत तंत्र’ में बदलना तो कहलायेगा ही, ऐसा करना देश के मतदाताओं का अपमान करना भी है। इनकी सोच पर तरस आती है और लगता है कि राजनीतिक दल चुनाव को मार्केट बनाने में और मार्केट काम्पीटीशन में ही लग गये हैं। इस तरह प्रलोभन देना लोकतांत्रिक व्यवस्था को अपना बंधुआ मजदूर बनाना हुआ। मजेदार बात यह कि किसी एक राजनीतिक दल का घोषणा पत्र आ जाने का इंतजार दूसरा दल करता है। जैसे- मार्केट काम्पीटीशन में उतरे दो व्यवसायी सोचें कि उसका ऑफर आ जाने दो, देखें वह क्या दे रहा है। उसके बाद अपना ऑफर घोषित करेंगे। यह चुनाव न होकर बाजार की मारा-मारी हो गई है।
इसी माह पांच राज्यों की विधानसभा के लिए चुनाव होने हैं। चुनाव प्रचार शुरू हो गया है और घोषणा पत्र भी जारी हो गये हैं। मजेदार बात यह कि राजनीतिक दलों के घोषणा पत्र एक से बढक़र एक आफर दे रहे हैं। लिखकर दे रहे हैं कि ये-ये-ये देंगे। समाजवादी पार्टी अगर लेपटाप देने कह रही है तो भाजपा कुछ और देने- भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह ने घोषणा कर दी कि उत्तरप्रदेश में ठीक उसी तरह दूध-घी की नदिया बहा देंगे जिस तरह भगवान कृष्ण के समय बह रही थी। अच्छा वायदा है। लेकिन लोग पूछ सकते हैं कि भगवान कृष्ण के समय नदियां प्रदूषित नहीं थीं। शुद्ध पेयजल तो मिल नहीं रहा, पवित्र नदियों तक को प्रदूषित कर दिया गया है। पहले शुद्ध पेयजल दिया जाये। गंगा की सफाई का अभियान चला रही है सरकार-आज तक कितना हिस्सा साफ हुआ। सफाई की क्या प्रगति है, इसकी चर्चा की नहीं जाती और न जनता को बताई जाती। उधर पंजाब में एक दल ने घोषणा कर दी कि वह दो किलो घी प्रति माह देगा। हमारे समाज में घी बड़ा जरूरी माना जाता है- चुपड़ी रोटी की इच्छा सबकी होती है। अकाली दल ने सोचा यह ऑफर शायद मतदाताओं को आकर्षित करे। कांग्रेस भी पीछे नहीं है। उत्तराखंड में भी लोक-लुभावन घोषणा की गई है।
ऐसा नहीं है कि चुनाव में घोषणा पत्र जारी करना हाल ही में शुरू हुआ है। चुनाव में पार्टी का घोषणा पत्र पहले भी जारी किए जाते थे। लेकिन उस समय के घोषणा पत्र और आज के प्रलोभनों से भरे घोषणा पत्र में जमीन-आसमान का अंतर है। ऐसा नहीं कि पहले पार्टी अपने कार्यक्रम अपनी नीतियां न बताती हो, बताती थीं और चुनाव घोषणापत्र होता भी इसीलिए है कि राजनीतिक दल अपने कार्यक्रम की लिखित जानकारी मतदाताओं-जनता को दे। सत्ता में आने पर पार्टी किस तरह से कार्यक्रम हाथ में लेगी और क्या नीतियां होंगी जिससे जनता को राहत मिले, विकास हो, तरक्की हो। घोषणा पत्र कोई प्रलोभन पत्र नहीं होता। मुफ्त लैपटाप बांट देने, मुफ्त में टीवी सैट बांट देने का मतलब आर्थिक विकास नहीं है। लेपटाप बांटना, टीवी सेट बांटना- ये किस तरह का विकास कार्यक्रम हुआ-यह तो प्रलोभन हुआ।
उच्चतम न्यायालय ने जाति-धर्म के नाम पर वोट मांगने के खिलाफ फैसला दिया है और स्पष्ट निर्देश दिया है कि जाति-धर्म, भाषा के नाम पर वोट मांगना गैरकानूनी है। उच्चतम न्यायालय को यह भी फरमान जारी करना चाहिए कि मुफ्त बांटना, प्रलोभन देना भी गैरकानूनी है अत: मुफ्त वस्तुएं बांटने की बात घोषणापत्र में लिखना गैरकानूनी है।
होना यह चाहिए कि जनता को आर्थिक रूप से इतना सक्षम बना दिया जाये कि वह अपनी जरूरत पूरी कर ले- गैरबराबरी दूर हो। देश में 80 प्रतिशत संसाधन पांच प्रतिशत लोगों के पास है, 20 प्रतिशत ही बाकी के पास है, यह डिसपैरेटी खत्म हो सबको समानता का सुख मिले- यही लोकतंत्र है। चुनाव घोषणा पत्र प्रलोभन का पिटारा न बने। चुनाव घोषणापत्र चूं-चूं का मुरब्बा भी न बने। चुनाव घोषणा पत्र स्पष्ट बताये कि कोई पार्र्टी किन कार्यक्रमों पर चलकर विकास करेगी और उसकी आर्थिक नीतियां क्या होंगी देश में व्याप्त घोर गैरबराबरी किस तरह दूर किया जाएगा।
पहले भी राजनीतिक दल चुनाव के समय वायदे करते थे। घोषणापत्र जारी करते थे। लेकिन उन दिनों अधिकतर सार्वजनिक लाभ की बात प्रमुखता से होती थी। जैसे कहीं प्राथमिक विद्यालय नहीं है, तो विद्यालय खोलने की बात, प्राथमिक विद्यालय को मिडिल स्कूल में अपग्रेड करने की बात, मिडिल स्कूल को हाईस्कूल बनाना। पुल-पुलिया, सडक़ें, नहर-नाली का निर्माण, रोजगार, शहरी आवास की समस्या, ग्रामीण आवास की समस्या दूर करने पर नीतियां व कार्यक्रम सहकारी आंदोलन को बढ़ावा देने की बात, सर्वशिक्षा की बात-स्वास्थ्य सेवाओं का विस्तार। अब सब एकदम बदल गया। शिक्षा और स्वास्थ सेवाएं निजी हाथों में सौंपी जा रही है। शिक्षा और स्वास्थ्य सेवाएं इतनी महंगी कर दी गई हैं कि आमजन की पहुंच से दूर हो रही है। गरीबों को इलाज के लिए कुछ सहायता राशि देकर सरकारें समझती हैं कि उनपर ‘उपकार’ कर रही है। सरकारी शिक्षण संस्थाएं, अस्पताल को कमजोर किया जा रहा है। सरकार को जरा भी नहीं लगता है कि जनसेवा के इस क्षेत्र में उसको अक्षम मान लिया है जनता ने... यह सरकार पर अविश्वास भी है। लोकतंत्र में चुनी गई सरकार का इस तरह का ‘असम्मान’ घोर चिंता का विषय है- घी, दूध की नदियां बहा देने से स्वास्थ्य ठीक रहे, यह नहीं होगा, गांवों में अच्छे अस्पताल हों, डॉक्टर हों, नर्स हों और दवाइयां भी हों- इसी तरह हर आदमी अपनी जरूरत की चीज खरीद सके इतना सक्षम हो। बहरहाल अब राजनीतिक दलों के घोषणा पत्र हास्यास्पद हो रहे हैं। हँसी आती है उन्हें पढक़र। भाई घोषणा पत्र को तो यथार्थ बनाओ- प्रलोभनों की दुनिया रंगीन होती हे, लेकिन रेतीली धरातल पर खड़ी जनता का कष्ट प्रलोभन से दूर नहीं होगा।
prabhakarchaube@gmail.com