• कश्मीर जनविद्रोह के कगार पर

    राजेंद्र शर्मा : जम्मू-कश्मीर की मुख्यमंत्री महबूबा मुफ्ती की स्थिति अगर एक साथ त्रासद और हास्यास्पद हो गयी है, तो इसके लिए शायद वह खुद ही सबसे ज्यादा जिम्मेदार हैं।

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    राजेंद्र शर्मा
    जम्मू-कश्मीर की मुख्यमंत्री महबूबा मुफ्ती की स्थिति अगर एक साथ त्रासद और हास्यास्पद हो गयी है, तो इसके लिए शायद वह खुद ही सबसे ज्यादा जिम्मेदार हैं। इस अशांंत राज्य में भाजपा के साथ गठजोड़ सरकार चला रहीं महबूबा कैसी उम्मीदों के साथ इस हफ्ते दिल्ली की यात्रा पर आयी थीं, यह कहना मुश्किल है। फिर भी दिल्ली आने से पहले और दिल्ली में केंद्रीय गृहमंत्री राजनाथ सिंह और खुद प्रधानमंत्री से भी मुलाकात के बाद उन्होंने जो सार्वजनिक बयान दिए, उनसे साफ है कि वह अपने अशांत राज्य के हालात संभालने के लिए, अपनी सहयोगी पार्टी की केंद्र सरकार से एक खास राजनीतिक सहायता मांगने आयी थीं। अटलबिहारी वाजपेयी की विरासत और परंपरा की दुहाइयों के बीच, उन्होंने खुलकर कहा कि वह कश्मीर में अलगाववादियों समेत राजनीतिक राय के सभी हिस्सों के साथ संवाद शुरू होते देखना चाहती हैं। लेकिन, इस मामले में दिल्ली से उन्हें न सिर्फ पूरी तरह से खाली हाथ लौटना पड़ा, इस एहसास के साथ भी लौटना पड़ा कि वह इस समय के कश्मीर की घाटी के वास्तव में बेकाबू हालात को संभालने में भाजपा की केंद्र सरकार से किसी राजनीतिक मदद की उम्मीद नहीं कर सकती हैं। उल्टे केंद्र की ओर से उन पर बढ़ते जनाक्रोश को दबाने के लिए और ज्यादा दमनकारी ताकत का इस्तेमाल करने के लिए ही दबाव डाला जा रहा होगा। प्रधानमंत्री के साथ मुलाकात के बाद, महबूबा मुफ्ती ने यह कहकर ज्यादा कुछ कहे बिना ही बहुत कुछ कह दिया कि जब पत्थर और गोलियों का चलना जारी हो, बात-बीच करना मुश्किल तो है। फिर भी प्रधानमंत्री ने बहुत बार वाजपेयी की दुहाई दी है। वाजपेयी ने जो खड़ा किया था उस पर आगे बढऩे की जरूरत है। वह निराश थीं कि जम्मू-कश्मीर सरकार में उनकी सहयोगी पार्टी की केंद्र सरकार, अशांत हालात की दुहाई देकर अपनी ही पार्टी की वाजपेयी सरकार के रास्ते पर चलने के लिए तैयार नहीं थी।
        दिल्ली ने महबूबा को सिर्फ निराश और खिन्न करके ही नहीं लौटाया। उनकी इस निराश वापसी के साथ बाकायदा इसके विकल्पों की चर्चा भी शुरू हो गयी कि महबूबा सरकार के पर्याप्त सख्ती नहीं दिखाने से नाराज केंद्र सरकार, राज्य में राज्यपाल के शासन का भी सहारा ले सकती है। इसके समांतर इसकी अटकलों ने भी एक बार फिर तेजी पकड़ ली है कि  अगर महबूबा ने केंद्र सरकार को ज्यादा नाराज किया तो दूसरे विकल्प के तौर पर, पीडीपी में विभाजन कराने के बाद, भाजपा और मजबूती से राज्य का प्रशासन अपने हाथों में ले सकती है। बहरहाल, ऐसा लगता है कि भाजपा को जल्दी ऐसा कोई विकल्प आजमाने की जरूरत शायद ही पड़े। दिल्ली से लौटने के बाद, मुख्यमंत्री के साथ सुरक्षा बलों के अधिकारियों के साथ पहली ही बैठक के नतीजे में, राज्य में सोशल मीडिया पर महीने भर के लिए पाबंदी लगा दी गयी है। जाहिर है कि अधिकारियों के अनुसार सोशल मीडिया का इस्तेमाल घाटी में लोगों को उकसाने के लिए किया जा रहा था। यह दूसरी बात है कि यह प्रतिबंध प्रकारांतर से इस बात को स्वीकार करना है कि घाटी में ऐसा कुछ हो रहा है, जिसके बारे में जानना लोगों को और भडक़ाने का ही काम करेगा।
        जैसा कि आसानी से अनुमान लगाया जा सकता था, इस बीच कश्मीर के हालात ने जन-विरोध से जन-विद्रोह का रूप लेने की दिशा में एक और कदम बढ़ा दिया है। हालात में और गिरावट के ताजातरीन चक्र की शुरूआत इसी महीने के शुरू में तब हुई जब श्रीनगर लोकसभाई सीट के उपचुनाव ने घाटी के लोगों को शासन से और खासतौर पर दिल्ली के शासन से अपनी नाराजगी जताने का मौका दे दिया। पहले ही जनता के बढ़े हुए विक्षोभ और खासतौर पर नौजवानों के दिल से सुरक्षा बलों का डर बहुत हद तक खत्म हो जाने की पृष्ठïभूमि में, अलगाववादियों द्वारा हर बार की तरह दिए गए चुनाव के  बहिष्कार के नारे ने, जनता के बीच इस बार ऐसा जोर हासिल कर लिया जो इससे पहले उसे कभी नहीं मिला था। इसके चलते न सिर्फ मतदान का आंकड़ा 7 फीसद के सबसे निचले अंक पर पहुंच गया, इतनी बड़ी संख्या में और इतने उग्र होकर लोग चुनाव के विरुद्घ सडक़ों पर उतरे कि मतदान के दिन ही पुलिस की गोलीबारी में पूरे आठ लोगों की जानें गयीं। कहने की जरूरत नहीं है कि इसने और तीखी प्रतिक्रिया को ही जन्म दिया। तीन दिन बाद करीब 30 मतदान केंद्रों पर हुए पुनर्मतदान में, मतदान और नीचे खिसक कर 3 फीसद पर चला गया। कई मतदान केंद्रों पर तो एक भी मतदाता वोट डालने नहीं पहुंचा।
        जैसे इतना भी काफी नहीं हो, हालात और बिगाडऩे वाले उकसावे के तौर पर, सुरक्षा बलों ने पुलवामा में सिर्फ नारे लगा रहे कालेज छात्रों को बर्बर दमन का निशाना बनाया और वह भी कालेज परिसर में कालेज प्रशासन की इजाजत के बिना घुसकर। इस दरिंदगी में दर्जनों छात्र घायल हो गए। अचरज नहीं कि इस एक घटना ने जिस तरह और जिस पैमाने पर घाटी के स्कूल-कालेजों के छात्रों को और छात्राओं को भी सडक़ों पर उतरने पर मजबूर किया है, पिछले काफी अर्से में ऐसा नहीं हुआ था। अचरज नहीं छात्रों के प्रदर्शनों से घबराकर प्रशासन द्वारा घाटी में तमाम स्कूल-कालेज बंद कर दिए जाने के पांच दिन बाद जब शिक्षा संस्थाएं दोबारा खुलीं, छात्र उसी तरह सडक़ों पर थे और इस बार राजधानी श्रीनगर में सडक़ों पर थे। प्रशासन ने अनेक जगहों पर दोबारा शिक्षा संस्थाओं को बंद करने में ही गनीमत समझी। इस तरह बगावत का दायरा बढ़ाकर स्कूल-कालेजों के छात्रों को भी उसके पाले में धकेला जा रहा है।
        अगर कोई सचमुच समझना चाहे तो मौजूदा शासन से कश्मीरी जनता के अलगाव की गहराई का अंदाजा कुपवाड़ा में सेना के शिविर पर आतंकवादी हमले के बाद की घटनाओं से लगाया जा सकता है। गांवों तथा कस्बों में सैन्य बलों द्वारा आतंकवादी बताए जा रहे लोगों से साथ एन्काउंटर के समय, स्थानीय लोगों के पथराव समेत विरोध प्रदर्शन करने का बढ़ता रुझान तो इस साल के शुरू से ही दर्ज किया जा रहा था। लेकिन, अब शायद पहली बार सेना के शिविर पर आतंकी हमले के बाद, स्थानीय लोग सैन्य शिविर पर विरोध प्रदर्शन करने के लिए पहुंचे थे। उन पर सुरक्षा बलों द्वारा चलायी गयी गोलियों से एक मौत भी हुई है। जाहिर है कि नरेंद्र मोदी की सरकार कश्मीरी जनता के इस अलगाव को देखने के लिए तैयार नहीं है और जम्मू-कश्मीर की सरकार में शामिल होने के बावजूद और अपनी गठबंधन सरकार की मुख्यमंत्री की तमाम अपीलों के बावजूद इसे देखने के लिए तैयार नहीं है, फिर उसे कम करने के लिए कुछ भी करने के लिए तैयार होने का तो सवाल ही कहां उठता है। उसकी गणना में न कश्मीर है, न कश्मीरी। उसकी गणना में सिर्फ जम्मू समेत शेष देश के अपने हिंदुत्ववादी समर्थक हैं, जिन्हें पाकिस्तान, कश्मीर आदि के  साथ ‘‘सख्ती’’ किए जाने का निरंतर भरोसा दिलाने की जरूरत है और जो मौजूदा सरकार के ही विस्तार के तौर पर खुद भी देश के विभिन्न हिस्सों में कश्मीरी छात्रों के साथ मार-पीट कर के, भारत से उनके अलगाव को और बढ़ाने में ही मदद कर रहे हैं। मेहबूबा का इस सब पर हैरान होना इसीलिए हास्यास्पद है कि भाजपा के साथ उनकी पार्टी के गठजोड़ की यही गत बननी थी। दो सांप्रदायिकताएं मिलकर तो दुहरी सांप्रदायिकता ही बना सकती हैं, धर्मनिरपेक्षता नहीं।

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