• कठुआ कांड के गहरे निहितार्थ

    भारत तो संयुक्त राष्ट्र संघ का संस्थापक सदस्य है। जनतांत्रिक मूल्यों के प्रति निष्ठा के कारण विश्व समाज में उसने अलग प्रतिष्ठा कायम की है

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    भारत तो संयुक्त राष्ट्र संघ का संस्थापक सदस्य है। जनतांत्रिक मूल्यों के प्रति निष्ठा के कारण विश्व समाज में उसने अलग प्रतिष्ठा कायम की है। तीसरी दुनिया के देशों में तो उसे एक आदर्श ही माना जाता रहा है। भारत की जनता भी अपनी सैकड़ों कमियों के बावजूद अपनी बहुलतावादी संस्कृति पर गर्व करती आई है। इसके बाद अगर आज हमें विश्व बिरादरी के मुखिया से नसीहत मिल रही है और हम शर्म से सिर झुकाए खड़े हैं तो यह हमारे लिए गहरे आत्ममंथन का समय है। राष्ट्रीय शर्मिन्दगी के इस क्षण को सोशल मीडिया पर ऊलजलूल टिप्पणियां कर या मौनव्रत धारण कर हवा में नहीं उड़ाया जा सकता। इस समय दो घटनाएं चर्चा में हैं जिन्होंने सभ्य समाज को आंदोलित कर रखा है।

    इन चार सालों में सुनते-सुनते कान पक गए कि जो सत्तर साल में नहीं हुआ वह अब हो रहा है। प्रधानमंत्री ने यह बात कम से कम चार हजार बार कही होगी तो उनके पार्टीजन और भक्तजनों ने चार अरब बार इसे मंत्र की तरह उच्चारित किया होगा। आज मैं कहना चाहता हूं कि प्रधानमंत्री जी! हां, जो पिछले सत्तर साल में नहीं हुआ वह आज हो रहा है। कठुआ में जो कुछ हुआ वह इस बात का वीभत्स प्रमाण है। ऐसा पहले तो कभी नहीं हुआ था कि भारत में किसी स्त्री के साथ बलात्कार हो और उसकी अनुगूंज संयुक्त राष्ट्र संघ तक सुनाई दे। वह एक ऐसी भयावह चीख हो कि संयुक्त राष्ट्र संघ के महासचिव तक को बयान देने की नौबत आ जाए जिसमें भारत से उम्मीद की जाए कि इस दरिंदगी और वहशीपन को अंजाम देने वालों को कानून के दायरे में लाकर उन्हें कड़ी से कड़ी सजा मिलेगी। हमें याद नहीं आता कि एंटोनियो गुट्टारेस या उनके पूर्व के किसी महासचिव ने किसी सदस्य देश के बारे में सामान्य शांति के दौर में ऐसी प्रतिक्रिया व्यक्त की हो।

    भारत तो संयुक्त राष्ट्र संघ का संस्थापक सदस्य है। जनतांत्रिक मूल्यों के प्रति निष्ठा के कारण विश्व समाज में उसने अलग प्रतिष्ठा कायम की है। तीसरी दुनिया के देशों में तो उसे एक आदर्श ही माना जाता रहा है। भारत की जनता भी अपनी सैकड़ों कमियों के बावजूद अपनी बहुलतावादी संस्कृति पर गर्व करती आई है। इसके बाद अगर आज हमें विश्व बिरादरी के मुखिया से नसीहत मिल रही है और हम शर्म से सिर झुकाए खड़े हैं तो यह हमारे लिए गहरे आत्ममंथन का समय है। राष्ट्रीय शर्मिन्दगी के इस क्षण को सोशल मीडिया पर ऊलजलूल टिप्पणियां कर या मौनव्रत धारण कर हवा में नहीं उड़ाया जा सकता। इस समय दो घटनाएं चर्चा में हैं जिन्होंने सभ्य समाज को आंदोलित कर रखा है। एक घटना उन्नाव की है जिसने उत्तरप्रदेश की शासन व्यवस्था, सत्ताधारी वर्ग का अहंकार, और ऐसे कई सवाल खड़े किए हैं, लेकिन मैं सोचता हूं कि कठुआ की त्रासदी स्वतंत्र भारत के इतिहास में अपनी तरह की सबसे अधिक विचलित कर देने वाली शर्मनाक घटना है जिसकी बहुत सी परतें हैं। 

    यह तथ्य याद रखने की आवश्यकता है कठुआ में जिस बच्ची के साथ बलात्कार हुआ उसकी आयु मात्र आठ वर्ष थी। लड़की का नाम आसिफा था याने वह अल्पसंख्यक समुदाय से थी। उस नन्ही बालिका को हिन्दू-मुसलमान का फर्क भी मालूम नहीं रहा होगा। यह भी याद रखना होगा कि जिन नरपिशाचों ने यह अपराध किया उसके लिए उन्होंने एक मंदिर को चुना। जिस मंदिर में वे पूजा करने जाते होंगे उस पूजा-स्थल को उन्होंने एक पाप-स्थल में बदल दिया। जिस नराधम ने यह षड़यंत्र रचा उसने अपने नाबालिग रिश्तेदारों को भी इस पाप का भागीदार बनने के लिए बुलाया। इसमें पुलिस का कोई अधिकारी भी शरीक था। यह हमारी व्यवस्था के बारे में एक शोचनीय संकेत है। इससे बढ़कर फिर हम जानते हैं कि लगभग तीन महीने तक पूरे मामले को दबा कर रखा गया। मीडिया ने कोई संज्ञान इसका नहीं लिया। जिन्हें मालूम पड़ा वे भी चुप रहे, और जब मामला खुलने लगा तो अपराधियों पर कार्रवाई होने के बदले उनके संरक्षण में लोग सामने आ गए।

    वे कौन लोग थे जो अपराधियों के बचाव में सामने आए? यह अनकथ विडंबना है कि जिन वकीलों को न्यायालय का अधिकारी माना जाता है जिनसे मानवाधिकार, मानवीय गरिमा, न्याय, संविधान-इन सबके संरक्षण की उम्मीद की जाती है वे खुलकर गुनहगारों का साथ देने लगे। कठुआ की बार एसोसिएशन और जम्मू की बार एसोसिएशन ने बड़ी होशियारी से उनके पक्ष में वक्तव्य जारी किए।  पुलिस की अपराध शाखा के बजाय सीबीआई से जांच करवाने का मुद्दा उठाकर वे सड़कों पर आ गए। जिस महिला वकील ने आसिफा का मुकदमा हाथ में लिया उसे बार रूम में पानी तक नहीं पीने दिया और सीजेएम के सामने मुकदमा पेश करने के रास्ते में तमाम बाधाएं पहुंचाईं। यही नहीं, एक कोई कथित हिन्दू सेना अपराधियों के पक्ष में सामने आ गई और प्रदेश में सत्तारूढ़ भाजपा के मंत्रियों ने उसमें खुलकर भागीदारी की। 

    प्रश्न है कि यह सब क्यों हुआ? आसिफा घूमंतू बकरवाल कबीले से थी। ये लोग शीतकाल में पहाड़ों से नीचे उतर आते हैं। आसिफा का परिवार भी इसी कारण कठुआ आया था। यह वह समाज था जिसके लोगों ने पूर्व में पाकिस्तानी घुसपैठियों के बारे में भारतीय सुरक्षाबलों को एकाधिक बार सचेत किया है जिनके कारण समय रहते जवाबी कार्रवाई होने से पाकिस्तान की घुसपैठ नाकाम कर दी गई। कश्मीर को भारत का अविभाज्य अंग मानने वाले और अपने आपको गर्व से हिन्दू कहने वालों ने इस समाज को उसकी देशभक्ति के बदले में यह तोहफा दिया है। इसके बाद भी इन्हें कोई शर्म या ग्लानि नहीं है। संघ और भाजपा के बड़े नेता राम माधव अभी भी अपने मंत्रियों को निर्दोष होने का प्रमाण दे रहे हैं। 

    यह किसी से छुपा हुआ नहीं है कि भारत को एक हिन्दू राष्ट्र बनाने की कोशिशें एक लंबे अरसे से चल रही है। देश में बहुसंख्यक हिन्दू और अल्पसंख्यकों के बीच खाई पैदा करने की कोशिशें लगातार जारी हैं। कठुआ कांड में एक बहुआयामी वर्चस्ववाद हमें दिखाई देता है जो असीम घृणा पर आधारित है। देश में सांप्रदायिक वारदातें पहले भी हुई हैं। बलात्कार की घटनाओं से भी देश का कोई इलाका अछूता नहीं है, लेकिन इस कांड ने सारी हदें तोड़ दी हैं। आठ साल की एक मासूम के साथ बलात्कार क्षणिक उत्तेजना के कारण नहीं हुआ है। यह घिनौना अपराध किसी सांप्रदायिक दंगे या युद्ध के बीच उपजी पाशविकता के कारण भी नहीं हुआ है। इसके विपरीत योजना बनाकर, सोच-विचारकर इसे अंजाम दिया गया है। इससे पता चलता है कि मुख्य अपराधी और उसके साथियों के रोम-रोम से कैसी घृणा फूट रही होगी जो हमने पहले कभी नहीं देखी।

     यह कांड सबसे पहले तो हिन्दुत्ववादी वर्चस्व बोध को दर्शाता है और संकेत करता है कि अगर इन शक्तियों को मौका मिला तो आगे वे क्या कर सकते हैं।  इसमें वह पितृसत्तात्मक पुरुषवादी वर्चस्व भी है, जो औरत को अपनी जागीर समझता है और उससे हर तरह की खिलवाड़ करने को अपना हक। फिर जब राज्य सरकार के दो मंत्री अपराधियों के पक्ष में सामने आते हैं तो सत्ताधारी वर्ग का वर्चस्व भी स्पष्ट दिखाई देता है। एक खानाबदोश गरीब घर की लड़की के साथ बलात्कार और उसकी हत्या से सम्पन्न समाज का वर्चस्वबोध भी प्रकट होता है। इस प्रकरण में वकीलों की जो भूमिका सामने आई वह भी समाज के शिक्षित वर्ग के वर्चस्व को प्रदर्शित करता है जिसमें शेष समाज को अपने से हेय मानने की प्रवृत्ति लगातार बढ़ रही है। दूसरी ओर मुख्यमंत्री महबूबा मुफ्ती, उनकी पार्टी, उनकी सरकार, मीडिया और वृहतर समाज- इन सबका जो रोल प्रारंभ में रहा वह बहुत चिंता उपजाता है।

    यह कांड जनवरी का है। प्रदेश सरकार इससे अनभिज्ञ नहीं थी। फिर इतने दिनों तक महबूबा मुफ्ती क्या कर रही थीं? अगर उनकी सरकार का कामकाज इतना ही ढीला-ढाला है तो क्या उन्हें पद पर रहने का अधिकार है? सारा खुलासा हो जाने के बाद भी उन्होंने कोई नैतिक जिम्मेदारी नहीं ली। क्या उन्हें सत्ता का इतना मोह है कि प्रदेश में भाजपा के इरादे और गतिविधियों को देखने के बाद भी वे एक अप्राकृतिक गठजोड़ को बनाए हुए हैं। भाजपा के दो मंत्रियों ने इस्तीफे तो दिए लेकिन बड़ी अनिच्छा से। एक ने तो कहा कि वे पार्टी के निर्देश पर विरोध प्रदर्शन में शामिल हुए थे। लेकिन भाजपा भी कोई नैतिक दायित्व स्वीकार करने तैयार नहीं था। और देश की जनता को क्या हुआ है? यदि राहुल गांधी आधी रात को मोमबत्ती जुलूस नहीं निकालते तो न तो शायद उन्नाव के अपराधी गिरफ्तार होते और न कठुआ के, और जनता भी शायद खामोश रही आती। यह अलग बात है कि राहुल गांधी को बात समझ में आई तो सही, लेकिन देर से। lalitsurjan@gmail.com

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