• आगे पाठ पीछे सपाट

    चिन्यम मिश्र :कश्मीर, दिल्ली और छत्तीसगढ़ मिलकर एक त्रिभुज बनाते हैं और त्रिभुज के तीनों लोगों पर भारतीय जनता पार्टी की सरकारें सत्तारूढ़ हैं। तो फिर ऐसा क्या घटित हो गया कि इन सरकारों में आपसी तालमेल

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    चिन्यम मिश्र
    सिर्फ सच और झूठ की मीजान (तराजू) में रक्खे रहे,
    हम बहादुर थे मगर मैदान में रक्खे रहे।
    जुगनुओं ने फिर अंधेरों से लड़ाई जीत ली,
    चांद सूरज घर के रौशनदान में रक्खे रहे।

    -राहत इंदौरी
    कश्मीर, दिल्ली और छत्तीसगढ़ मिलकर एक त्रिभुज बनाते हैं और त्रिभुज के तीनों लोगों पर भारतीय जनता पार्टी की सरकारें सत्तारूढ़ हैं। तो फिर ऐसा क्या घटित हो गया कि इन सरकारों में आपसी तालमेल दिखाई ही नहीं दे रहा है। जम्मू-कश्मीर की मुख्यमंत्री  महबूबा मुफ्ती पिछले दिनों दिल्ली आईं थीं और उन्होंने प्रधानमंत्री और गृहमंत्री दोनों से राज्य में सभी पक्षों से चर्चा करने का प्रस्ताव किया, जिसे स्पष्टतया अस्वीकार कर दिया गया। तो अब कौन सा तरीका अपनाया जाएगा। ‘सूत्र’ बताते हैं कि पहले पत्थरबाजी और विरोध प्रदर्शन रुकें, तो बातचीत की जाएगी वहीं वास्तविकता तो यह है कि बातचीत नहीं हो रही इसीलिए तो पत्थर,लात-घूंसे और बंदूकों से गोलियां चल रही हैं। यहां सवाल पहले अंडा या पहले मुर्गी का नहीं, बल्कि पहले पहल कौन करे, इसका है। कश्मीर के अलगाववादी नेता जेल में हैं और आंदोलन जारी है। अतएव बातचीत तो सरकार को ही शुरु करना होगी। परंतु सरकारों, केन्द्र व राज्य दोनों को तो जैसे सांप सूंघ गया है। विरोध प्रदर्शन में अब स्कूली छात्र ही नहीं, छात्राएं भी सडक़ पर उतर आई हैं और पुलिस से पिटने के बाद अस्पताल में भर्ती हैं। यानि असंतोष अगली पीढ़ी को अपने आगोश में ले चुका है और लोकतांत्रिक व्यवस्था होना व अन्य अर्धसैनिकों, सैन्य बलों के सहारे इस समस्या को निपटाना चाहती है।
    वहीं छत्तीसगढ़ में सीआरपीएफ के 25 जवानों की लोमहर्षक हत्या ने रोंगटे खड़े कर दिए हैं। वहां डॉ. रमन सिंह डेढ़ दशक से शासन कर रहे हैं और किसी भी समाधान की ओर पहल तक नहीं कर पाए हैं। सीआरपीएफ की कमजोरियों को लेकर बीएसएफ के पूर्व डायरेक्टर जयप्रकाश सिंह ने अत्यन्त सारगर्भित टिप्पणी की है। परंतु अभी तक के अनुभव तो यही बता रहे हैं कि, किसी भी अर्थपूर्ण सलाह पर गौर करना भारतीय प्रशासनिक व राजनीतिक व्यवस्था ने बंद कर दिया है। इस बीच गृहमंत्री ने वहां सेना की तैयाती से इंकार कर एक प्रशंसनीय कदम उठाया है। परंतु इतना ही काफी नहीं है। छत्तीसगढ़ हो या कश्मीर या उत्तर-पूर्व चर्चा या कार्रवाई या रणनीति बनाने या बदलने की बात तभी उठती है जब हिंसा का तांडव शुरु होता है। उसके पहले पूरा अमला गहरी तंद्रा में लीन रहता है। माओवादियों या कश्मीर में समुदाय द्वारा हिंसा के शुरु होते ही मानवाधिकार कार्यकर्ताओं को कोसने की शृंखला प्रारंभ हो जाती है। जब कोई और नहीं मिलता तो अपनी नाकामी छिपाने के लिए इस नए दुष्प्रचार को प्रोत्साहित किया जाने लगता है। कश्मीर में हालात बेकाबू हुए तो पहले 17 अप्रैल को मोबाइल, इंटरनेट बंद किए गए और 26 अप्रैल को फेसबुक और ट्विटर समेत सभी स्पेशल साइट्, एक महीने को बंद कर दी गई। इसके समानांतर पूरे देश को वहां की परिस्थिति पर मनमानी टिप्पणी की छूट है और कश्मीर की अवाम उसका जवाब तक नहीं दे सकती। इस एकतरफा और भेदभावपूर्ण व्यवहार से हालात सुधरने से रहे।
    भारत के महान्यायवादी (एटार्नी जनरल) मुकुल रोहतगी ने कश्मीर में पिछले दिनों भारतीय सेना द्वारा एक नागरिक फारुक अहमद को मानव ढाल के रूप में इस्तेमाल किए जाने को न्यायोचित ठहराते हुए कहा कि, ‘विशिष्ट (अनूठी) परिस्थितियों में विशिष्ट उपायों की आवश्यकता होती है।’ गौरतलब है मानव ढाल बनाना न सिर्फ भारतीय संविधान के अनुच्छेत 21 का सर्वथा उल्लंघन है बल्कि सन् 1949 के जेनेवा सम्मेलन का भी उल्लंघन है जिसके अंतर्गत इसे एक युद्ध अपराध माना गया है। गौर करने वाली बात यह है कि ऐसी विशिष्ट परिस्थितियों, जिनका कि कश्मीर और छत्तीसगढ़ दोनों ही शिकार हैं, के लिए कोई अनूठी पहल क्यों नहीं की जा रही। महान्यायवादी शायद गांधीजी की इस सलाह पर गौर करेंगे, ‘सभ्यता का निर्णय अल्पसंख्यकों के साथ के व्यवहार से होता है।’ गौरतलब है भारत में आदिवासी भी अल्पसंख्या में ही हैं। गांधी ने सितंबर-1947 में यह भी कहा था, ‘जिस समय प्रासंगिक हो उस समय सच बोलना ही पड़ता है, चाहे वह कितना ही नागवार क्यों न हो। अगर पाकिस्तान में मुसलमानों के कुकृत्यों को रोकना या बंद करना अभीष्ट है, तो भारतीय संघ में हिन्दुओं के कुकृत्यों का छल पर खड़े होकर ऐलान करना होगा।’ परिस्थितियों के हिसाब से प्रतीकों में बदलाव कर लें तो समस्या का समाधान ढंूढा जा सकता है।
    भारतीय तंत्र की एक विशिष्टता यह भी है कि वह समस्या को नासूर बनाकर तब उसका उपचार करने को आगे बढ़ती है। नक्सल या माओवादी समस्या का निदान आदिवासियों की समस्याओं के निराकरण में है और यह समाधान सडक़ बनाने जैसे विकास के कथित मॉडल से नहीं होगा। अभी परिस्थितियां असाधारण जटिलता की ओर मुड़ चुकी हैं और बंदूक और सडक़ दोनों से इसे नहीं सुलझाया जा सकता। आदिवासी समाज के वास्तविक हितैषी स्व. डॉ. ब्रह्मदेव शर्मा ने अत्यन्त महत्वपूर्ण बातें कहीं हैं। पहली यह कि ‘आदिवासी इलाकों में इक्कीसवीं सदी प्रलय का संदेश लेकर आई है।’ दूसरी बात इससे भी महत्वपूर्ण है, ‘राज के उत्तराधिकारी के रूप में हमारे शासक वर्ग का ‘अहम’ इस रोग का मुख्य कारण है। वे अनुसूचित क्षेत्रों के प्रशासन में बुनियादी रूप-परिवर्तन से समझौता नहीं कर पा रहे थे, जो ग्रामसभा द्वारा अपना सब कामकाज चलाने की सक्षमता के रूप में उसके नैसर्गिक अधिकार में अंतर्निहित है। सच तो यह है कि इन इलाकों में आम लोग राज्य द्वारा अधिकार दिए जाने की संकल्पना के बाहर है।’ कश्मीर हो या छत्तीसगढ़ स्थानीय स्तर पर समाधान के उपाय ही थम गए हैं या मुख्यमंत्री समस्याओं के निराकरण में लगातार असफल रहे हैं तो उन्हें हटाया क्यों नहीं जा रहा? इसका यदि सीधा अर्थ निकाला जाए तो यही निकलेगा कि तंत्र या व्यवस्था कोई समाधान चाहती ही नहीं है।
    कश्मीर की मुख्यमंत्री की चर्चा की मांग को अस्वीकार कर केन्द्र सरकार और भारतीय जनता पार्टी ने स्पष्ट कर दिया है कि निकट भविष्य में कोई हल निकलने वाला नहीं है। उधर प्रधानमंत्री ने यशवंत सिन्हा से मिलने का वक्त नहीं दिया। सिन्हा शरद यादव से मिले और शरद यादव सोनिया गांधी से। कांग्रेस के पूर्व प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह की सहारत में कश्मीर को लेकर एक समिति का गठन कर रही है। यह एक स्वागतयोग्य पहल है। समस्याओं के निराकरण के लिए पूर्णतया सरकार पर निर्भर रहना भी लोकतंत्र के लिए घातक है। यह कार्य जितनी शीघ्रता से हो वह कश्मीर सहित पूरे देश के हित में है। अतिराष्ट्रवाद के जयकारों के बीच इस तरह की पहल लोकतांत्रिक मूल्यों को मजबूत करेगी। आवश्यक यह है कि इसमें अन्य दलों का सहयोग भी लिया जाए। भारतीय नागरिक समाज अपनी वास्तविक क्षमता को भुला बैठा है। उसे धैर्यपूर्वक अपनी उपस्थिति दर्ज करानी चाहिए। जे. कृष्णमूर्ति ने धैर्य को बहुत सुंदर परिभाषित किया है। वे कहते हैं, ‘धैर्य का अर्थ है समय (काल) की अनुपस्थिति।’ जबकि सामान्यतया धैर्य का अर्थ होता है कि, ‘थोड़ा धीमे चलें, पूरा समय लें, तुरंत प्रतिक्रिया न दें, चुप रहें, दूसरे व्यक्ति को स्वयं को अभिव्यक्त करने का मौका दें।’ परंतु वह कहते हैं, ‘धैर्य का अर्थ है गहन अवलोकन।’ आवश्यकता है कि आज देश की परिस्थितियों और समस्याओं को धैर्य के साथ अवलोकन कर उन्हें ठीक तरह से समझा जाए और पूर्वाग्रहग्रस्त मन:स्थिति से निकला जाए। भाजपा की जीत लोकप्रिय मुहावरे, ‘आगे पाठ पीछे सपाट’ की याद दिला रही है। पिछले तीन वर्षों में एक भी समस्या का निराकरण नहीं हो पाया है। आगे क्या होगा या कोई रहस्य नहीं है।

     

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