• कश्मीर : असंभव नहीं है समाधान

    चिन्यम मिश्र :कश्मीर एक बार फिर उबल रहा है। वजह कोई नई नहीं है, जिसकी बार-बार विवेचना की जाए। कब्रिस्तान और श्मशान के बीच यदि कोई बहस और द्वंद होगा, तो कौन जीतेगा?

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    चिन्यम मिश्र
    खोल आंख जमीन देख फलक देख फिजा  देख,
    मशरिक में उभरते हुए सूरज को जरा देख,
    इस जलवा ए बेपरदा को परदों में छुपा देख,
    अय्याम ए जुदाई के सितम देख जफा देख।
    -इकबाल

    कश्मीर एक बार फिर उबल रहा है। वजह कोई नई नहीं है, जिसकी बार-बार विवेचना की जाए। कब्रिस्तान और श्मशान के बीच यदि कोई बहस और द्वंद होगा, तो कौन जीतेगा? क्या यह भी अब हमें समझना होगा? एक अनसुलझी गुत्थी पिछले सात दशकों से भारतीय गणतंत्र को जकड़े हुए है, और विचित्र बात यह है कि हम इसे जितना सुलझाना चाहते हैं, उतनी ही नई गांठें इसमें लगती जाती है। जाहिर है गांठ को खोलने के लिए तो धैर्य चाहिए गुस्सा नहीं। परन्तु दोनों पक्ष अपनी कमतरी के चलते गुस्से को ही अपना साध्य बनाए बैठे हैं। हमें यह तो मानना ही होगा कि पत्थर, बंदूक की गोली का मुकाबला नहीं कर सकते। मगर हमें यह भी जान लेना होगा कि जिन हाथों ने इन पत्थरों को उठा रखा है, उनके मन से बंदूक का खौफ खत्म होता जा रहा है। यह एक विचित्र परिस्थिति है, जिसमें दोनों ही पक्षों की हार सुनिश्चित है क्योंकि लोकतंत्र आपसी रंजिश नहीं, बल्कि भाइचारे का पर्याय है और इसमें पराजित हुए प्रत्याशी को भी गले लगाते हैं। यह बेहद अफसोसजनक है कि भारतीय गणतंत्र के खिवैया पतवार नहीं बंदूक से नाव खेना चाहते हैं। क्या कोई विकल्प है?
    भारतीय संस्कृति एक अनूठी विरासत है और इसमें सभी जटिल समस्याओं के समाधान मौजूद हैं। मजेदार बात यह है कि हर काल में कई अबूझ सी लगने वाली समस्याओं का समाधान बच्चों के माध्यम से सामने आया है। यानि हममें बच्चों जैसी सहजता और निश्च्छलता होना अनिवार्य है। इसे दो दृष्टांतों से समझते हैं। पहली घटना बालक नचिकेता की है जो अपने पिता के कार्यों से असंतुष्ट है, और अपने पिता को सर्वाधिक प्रिय होने का वास्ता देकर उसने स्वयं को मृत्यु के देवता यम को समर्पित कर दिया था। यह है किसी अन्य की इच्छाओं के लिए अपने को मिटा लेने की अदम्य उत्कंठा। अब एक दूसरे दृष्टांत पर गौर करते हैं, जो कि ऐतिहासिक काल का है और इसके प्रमाण भी मौजूद हैं। महत्वपूर्ण यह है कि यह कश्मीर से ही जुड़ा हुआ है। औरंगजेब का काल है और जब कश्मीरी पंडितों के जुल्म सहने की सीमा पार कर गए तो वह पंडित कृपाराम के नेतृत्व में एक जत्था लेकर गुरु तेगबहादुर के पास पहुंचे। उनकी दारुण कथा सुनकर गुरु ने कहा जब तक कोई महान पुरुष धर्म की रक्षा के लिए आत्मबलिदान नहीं करता। तब तक धर्म को बचा पाना मुमकिन नहीं है। संगत में बैठे लोग गहन विचार में पड़ गए। संगत में नौ बरस के गुरुपुत्र गोविंद राय (बाद में गुरु गोविंद सिंह) भी मौजूद थे। उन्होंने कहा, पिता महाराज पूरे भारत में इस समय आपसे बढक़र महान पुरुष कौन है? आप ही धर्म की रक्षा कर सकते हैं। गुरु तेगबहादुर ने बिना पलक झपकाए पंडित कृपाराम से कहा तुम लोग बादशाह औरंगजेब के पास जाओ और उससे कहो कि, इस वक्त गुरु तेगबहादुर हमारे नेता हैं, जो गुरुनानक की गद्दी पर बैठे हैं। अगर वह इस्लाम धर्म कुबूल कर लेंगे तो सभी हिन्दू भी इस्लाम स्वीकार कर लेंगे। कहते हैं, यह सुनते ही औंरगजेब बहुत खुश हुआ और उसने फौरन गुरु की गिरफ्तारी का फरमान जारी किया और कश्मीर में चल रहे धर्मपरिवर्तन और अत्याचार को कुछ समय के लिए रोकने का आदेश दे दिया। गुरु तेगबहादुर के साथ जो हुआ उसकी स्मृति दिल्ली के चांदनी चौक में स्थित गुरुद्वारा सीसगंज में आज भी महसूस की जा सकती है। उनकी शहादत एक मिसाल है।
    परन्तु नचिकेता और गोविंदराय की विरासत को तो जैसे ग्रहण लग गया है। भारतीय सैन्य, अर्धसैन्य एवं पुलिस बल के करीब 7 लाख लोग घाटी व उससे सटे इलाकों में हैं। मगर फिर भी शांति स्थापित नहीं हो रही। इससे यह तो जाहिर हो गया कि युद्ध कभी भी शांति नहीं ला सकता। बंदूक तो अपना धर्म निभाएगी। सवाल तो उन ऊंगलियों का है जो बंदूक चलाती हैं या पत्थर फेंकती हैं, वह कौन सा धर्म अपनाएं? क्या मानवीयता नाम के धर्म की कोई गुंजाइश या अहमियत अभी बची है? क्या एक निरपराध को जीप के आगे बांध कर घुमाने से कश्मीर के हालात सामान्य हो सकते हों तो हम सबको अपनी मर्जी से भारतीय सेना को इसके लिए अपना सहमति पत्र जरूर भेज देना चाहिए। यदि इस तरह के विवादास्पद निर्णयों पर आने वाली प्रतिक्रियाओं का जवाब गाली-गलौज की भाषा में दिया जाएगा तो क्या इससे भाईचारा बढ़ेगा। या भारत के बाकी के हिस्सों में भी कटुता को प्रोत्साहन मिलेगा।
    हम आज लोकतंत्र में रह रहे हैं और अब फरमान नहीं संविधान और कानून इस देश को चलाते हैं। राष्ट्रपति हों या पटवारी, प्रधानमंत्री हों या पंच, सेनाकर्मी हों या आतंकवादी सबको रहना तो इसी के अन्तर्गत पड़ेगा। देशभक्ति के नाम पर ज्यादती की छूट नहीं दी जा सकती। सर्वोच्च न्यायालय ने मणिपुर में पिछले कुछ वर्षों में कथित एनकांउटर में हुई 1528 मौतों की जांच को लेकर जो निर्णय दिया है उसे पढऩे के बाद तमाम लोगों को अपनी अतिराष्ट्रवादी एकतरफा व भडक़ाऊ टिप्पणियों पर पुनर्विचार करना चाहिए। मरने-मारने की जगह सुलह-सफाई ही कोई समाधान तक पहुंचा सकती है।
    फैज अहमद फैज ने लिखा है, ‘जब दुख की नदियां में हमने जीवन की नाव डाली थी/ कितना कस-बल था बाहों में, लहू में कितनी लाली थी/ कुछ मांझी थे अन्जान बहुत /कुछ अनदेखी मझधारंे थीं/ अब तुम्हीं कहो क्या करना है/ अब कैसे पार उतरना है?’ सबसे अहम सवाल यही है कि इस संकट से पार कैसे पाया जाए? पत्थर और पैलेटगन तो आपस में टकरा सकते हैं, पार तो नहीं लगा सकते। हां, अलबत्ता नाव को मझधार में डूबा जरूर सकते हैं। दिल्ली और श्रीनगर में बैठे अन्जान मांझी भी बिगड़ी को और बिगाडऩे से ज्यादा कुछ भी नहीं कर रहे हैं। ऐसे में कुछ ऐसा करना होगा जिससे कि कश्मीर की अवाम को थोड़ा बहुत सुकून पहुंचे और भारत के प्रति उनके बढ़ते अलगाव को आंशिक विराम लगे। पीडीपी और भाजपा की संयुक्त सरकार वहां पूरी तरह से असफल साबित हो रही है। इसके लिए केन्द्र का हस्तक्षेप भी कम जिम्मेदार नहीं है। राज्यपाल भी स्थितप्रज्ञ की स्थिति में हैं। अतएव आवश्यकता इस बात की है कि जम्मू-कश्मीर की राजनीतिक व प्रशासनिक व्यवस्था में आमूलचूल परिवर्तन हो। इसी के साथ सेना के ऊपर बढ़ती निर्भरता को भी हर हालत में कम करना ही होगा। प्रयोग के तौर पर वरिष्ठ राजनीतिज्ञ यशवंत सिन्हा या ऐसे ही किसी परिपक्व राजनीतिज्ञ को वहां का राज्यपाल या मध्यस्थ की औपचारिक नियुक्ति की जानी चाहिए। खतरनाक बात यह है कि अब स्कूल कॉलेज के लडक़े और लड़कियां दोनों अपनी यूनिफार्म में विरोध प्रदर्शन करने लगे हैं। सुरक्षाबल शिक्षा परिसरों में प्रवेश कर रहे हैं। इसे खतरे की घंटी समझ तुरंत वार्ता शुरू करना ही होगी।
    हमें यह समझना होगा कि कश्मीर भारतीय संस्कृति का एक अनूठा पड़ाव है। इसने भारतीय संस्कृति को एक नई पहचान ही नहीं बल्कि मायने भी दिए हैं। भारतीय सांस्कृतिक परिदृष्य बिना कश्मीर के अधूरा ही रहता। ऐसे में तमाम झूठे अहम की दीवार को तोडक़र अत्यंत विनम्रता से भारत सरकार व जम्मू-कश्मीर सरकार को अपनी पिछली गलतियों को स्वीकारना चाहिए और आगे सबको साथ लेकर चलने की प्रतिज्ञा करनी चाहिए जिससे कि गलतियों का दोहराव न हो। हम जहांआरा की इन पंक्तियों को तो नहीं, इनके अर्थ को जरूर समझते हैं और यही जरूरी भी है। वे लिखती हैं-
    अगर फिरदौस बर रू जमीन अस्त
    हमीन अस्त, हमीन अस्त, हमीन अस्त।

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